एक लघुकथा – समझ
दरोगा अपने ही लहज़े में समझाने की चेष्टा कर रहा था। – ‘ स्साले से बीस हज़ार तो लूंगा ही, तुझे धमकाने के जुर्म में उसे जेल की हवा भी खिलवाऊंगा। सिर्फ तुम मुकदमा दर्ज करने के लिए एक अर्जीनामा थाने के मुंशी के पास जमा कर दो।’
दरोगा द्वारा बड़े भाई से रुपये ऐंठने और उनके लिए गन्दी- गन्दी गालियां सुनकर उसका सारा क्रोध वर्फ हो गया। मुकदमे के लिए मजमून लिख रहे उसके हाथ यकायक रुक गये। क्योंकि भाई होने के नाते ये गालियां उस पर भी जाती थीं। वह आधी लिखी अर्जी मुट्ठी में भींचा और दरोगा को बिना कुछ बोले थाने से बाहर निकल गया।
वह आंगन में बड़े भाई के सामने आकर चुपचाप खड़ा हो गया। हालांकि भाई द्वारा अपमान किए जाने का अवसाद अभी भी जेहन में घुमड़ रहा था, परन्तु दरोगा की गालियां उसे कहीं और बड़ा आघात पहुंचा दिया था। अभी बड़ा कुछ समझ पाता कि छोटा बुझे मन से बोल पड़ा – ‘ भैया, विवाद वाली बित्ते भर जमीन मैं आपको ही छोड़ता हूं। इज्ज़त- सम्मान से बढ़कर जमीन नहीं होती।’
भाई के स्वभाव में आये अचानक बदलाव से बड़ा भौंचक था।जो आदमी थोड़ी-सी जमीन के लिए वर्षों से अडिग दिखता था,उसका मन यकायक कैसे बदल सकता है? वह भेद जानने के लिए व्यग्र हो उठा। कुछ समय के लिए तो उसे विश्वास ही नहीं होता था, परन्तु जब अपने करीबियों से थाने की घटना को सुना तो वह खुद पर काफी लज्जित हुआ।अब मन में भाई के प्रति घृणा की जगह प्रेम के अंकुर फूटने लगे। फिर सारे गिले-शिकवे भूल भाई के पास जाकर गर्व से बोला – ‘ शाबाश छोटू! तुमने तो हमारा धन और धर्म दोनों बचा लिया।’
भींच कर भाई को सीने से लगा लिया था।अब दोनों की आंखों में आसूं भरे थे।
लेखक :- संजीव प्रियदर्शी